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Important Histry Topic / महत्वपूर्ण इतिहास विषय |
नाज़ीवाद
नाज़ीवाद, जर्मन तानाशाह एडोल्फ़ हिटलर की विचार धारा थी। यह विचारधारा सरकार और आम
जन के बीच एक नये से रिश्ते के पक्ष में थी। इस के अनुसार सरकार की हर योजना में
पहल हो परंतु फिर वह योजना जनता-समाज की भागिदारी से चले। कट्टर जर्मन
राष्ट्रवाद,
देशप्रेम, विदेशी विरोधी, आर्य और जर्मन हित इस विचार धारा के मूल अंग है।
नाज़ी यहुदियों से सख़्त नफ़रत करते थें और यूरोप और जर्मनी में हर बुराई के लिये उन्हें ही
दोषी मानते थे। नाज़ीयों ने केंद्र में अपनी सरकार बनते ही जर्मनी में हिटलर की
तानाशाही स्थापिक की और फिर यहुदियों के जर्मनी में दिन भर गये। द्वितीय विश्व
युद्ध में यहुदियों के क़त्ले-आम के पीछे भी
नाज़ीयों का ही हाथ था। हिटलर राष्ट्र का महान नेता व शासक होने के वजह से लोगो पर
अत्याचार करता था।
फ़ासीवाद
फासीवाद या फ़ासिस्टवाद (फ़ासिज़्म) इटली में बेनितो मुसोलिनी द्वारा संगठित "फ़ासिओ डि
कंबैटिमेंटो" का राजनीतिक आंदोलन था जो मार्च, 1919 में प्रारंभ हुआ। इसकी
प्रेरणा और नाम सिसिली के 19वीं सदी के क्रांतिकारियों- "फासेज़"-से ग्रहण किए
गए। मूल रूप में यह आंदोलन समाजवाद या साम्यवाद के विरुद्ध नहीं, अपितु उदारतावाद के विरुद्ध था।
उद्भव तथा
विकास
इसका उद्भव 1914 के पूर्व के समाजवादी आंदोलन (सिंडिकैलिज़्म) में
ही हो चुका था , जो
फ्रांसीसी विचारक जाज़ेंज सारेल के दर्शन से प्रभावित था।
सिंडिकैलिस्ट पार्टी उस समय पूँजीवाद और संसदीय राज्य का विरोध कर
रही थी। 1919 में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पार्टी के एक सदस्य
मुसोलिनी ने अपने कुछ क्रांतिकारी साथियों के साथ एक नई क्रांति की भूमिका बना डाली।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इटली को सम्मानित स्थान, गृहनीति में मजदूरों और सेना का
सम्मान तथा सभी लोकतांत्रिक और संसदीय दलों तथा पद्धतियों का दमन आदि उसके घोषणापत्र की प्रमुख बातें थीं। प्रथम
विश्वयुद्ध में इटली मित्रराष्ट्रों का पक्ष लेकर लड़ा और उसमें उसने सैनिक तथा
आर्थिक दृष्टियों से बड़ी हानि उठाई। युद्धोत्तर परिस्थितियों ने फ़ासिस्टवादी
आंदोलन के लिए सुदृढ़ पृष्ठभूमि तैयार की। मुसोलिनी ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए रोसोनी की नेशनल सिंडिकैलिस्ट पार्टी
को भी मिला लिया। क्रांति और पुनरुत्थान के तीखे नारों ने निर्धन जनता को बहुत
प्रभावित किया और बहुसंख्यक कृषकों तथा मजदूरों में फ़ासिस्टवाद की जड़ें, बड़ी गहराई तक फैल गईं।
सिंडिकैलिस्ट पार्टी तब तक कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में उभर चुकी थी, उसे भी मुसोलिनी के क्रूर दमन
का शिकार होना पड़ा।
कम्युनिस्टों से निपटने के दौरान अनेक भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियों के
तत्व इस आंदोलन में सम्मिलित हुए, जिसके कारण फ़ासिस्टों का कोई संतुलित राजनीतिक दर्शन नहीं
बन पाया। कुछ व्यक्तियों की सनकों और प्रतिक्रियावादी दुराग्रहों से ग्रस्त इस
आंदोलन को इटली की तत्कालीन अनिश्चय और अराजकता की परिस्थितियों से बहुत पोषण
मिला। अंततोगत्वा 20 अक्टूबर 1922 को काली कमीज़ें पहने हुए फ़ासिस्टों ने रोम को घेर लिया तो सम्राट् विक्टर इमैनुएल को विवश होकर मुसोलिनी को
मंत्रिमंडल बनाने की स्वीकृत देनी पड़ी। फ़ासिस्टों ने इटली के संविधान में अनेक
परिवर्तन किए। ये परिवर्तन, पार्टी
और राष्ट्र दोनों को मुसोलिनी के अधिनायकवाद में जकड़ते चले गए। फ़ासिस्टों
का यह निरंकुशतंत्र द्वितीय विश्वयुद्ध तक चला। इस बार मुसोलिनी के
नेतृत्व में इटली ने "धुरी राष्ट्रों" का साथ दिया। जुलाई, 1943 में
"मित्रराष्ट्रों" ने इटली पर आक्रमण कर दिया। फ़ासिस्टों का भाग्यचक्र
बड़ी तेजी से उलटकर घूम गया। पार्टी की सर्वोच्च समिति के आक्रोशपूर्ण आग्रह पर
मुसोलिनी को त्यागपत्र देना पड़ा और फ़ासिस्ट सरकार का पतन हो गया।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अपने आरंभिक दिनों में
फ़ासिस्टवादी आंदोलन का ध्येय राष्ट्र की एकता और शक्ति में वृद्धि करना था। 1919
और 1922 के बीच इटली के कानून और व्यवस्था को चुनौती सिंडिकैलिस्ट, कम्युनिस्ट तथा अन्य वामपंथी
पार्टियों द्वारा दी जा रही थी। उस समय फ़ासिस्टवाद एक प्रतिक्रियावादी और
प्रतिक्रांतिवादी आंदोलन को समझा जाता था। स्पेन, जर्मनी आदि में भी इसी प्रकृति के
आंदोलनों ने जन्म लिया और फ़ासिस्टवाद, साम्यवाद के प्रतिपक्ष (एंटीथीसिस) के
अर्थ में लिया जाने लगा। 1935 के पश्चात् हिटलर-मुसोलिनी-संधि से इसके अर्थ में
अतिक्रमण और साम्राज्यवाद भी जुड़ गए। युद्ध के दौरान
मित्रराष्ट्रों ने फ़ासिज्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम कर दिया।
मुसोलिनी की प्रिय उक्ति थी : 'फ़ासिज्म निर्यात की वस्तु नहीं
है'। फिर भी, अनेक देशों में, जहाँ समाजवाद और संसदीय
लोकतंत्र के विरुद्ध कुछ तत्व सक्रिय थे, यह आदर्श के रूप में ग्रहण किया
गया। इंग्लैंड में "ब्रिटिश यूनियन आव फ़ासिस्ट्स" और फ्रांस में "एक्शन
फ्रांकाइसे" द्वारा इसकी नीतियों का अनुकरण किया गया। जर्मनी (नात्सी), स्पेन (फैलंगैलिज़्म) और दक्षिण अमरीका में इसके सफल प्रयोग हुए। हिटलर तो फ़ासिज्म का कर्ता ही था।
नात्सीवाद के अभ्युदय के पूर्व स्पेन के रिवेरा और आस्ट्रिया के डालफ़स को मुसोलिनी का पूरा सहयोग
प्राप्त था। सितंबर, 1937 में
"बर्लिन-रोम धुरी" बनने के बाद जर्मनी ने फ़ासिस्टवादी आंदोलन की गति को
बहुत तेज किया। लेकिन 1940 के बाद अफ्रीका, रूस और बाल्कन राज्यों में इटली की लगातार
सैनिक पराजय ने फ़ासिस्टवादी राजनीति को खोखला सिद्ध कर दिया। जुलाई, 1943 का सिसलीपर ऐंग्लो-अमरीकी-आक्रमण
फ़ासिस्टवाद पर अंतिम और अंतकारी प्रहार था।
पूंजीवाद
पूंजीवाद (Capitalism) सामन्यत: उस आर्थिक प्रणाली या तंत्र को कहते हैं जिसमें उत्पादन के साधन पर निजी स्वामित्व होता है। इसे कभी कभी
"व्यक्तिगत स्वामित्व" के पर्यायवाची के तौर पर भी प्रयुक्त किया जाता है यद्यपि
यहाँ "व्यक्तिगत" का अर्थ किसी एक व्यक्ति से भी हो सकता है और
व्यक्तियों के समूह से भी। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सरकारी प्रणाली के
अतिरिक्त अपनी तौर पर स्वामित्व वाले किसी भी आर्थिक तंत्र को पूंजीवादी तंत्र के
नाम से जाना जा सकता है। दूसरे रूप में ये कहा जा सकता है कि पूंजीवादी तंत्र लाभ के लिए चलाया जाता है, जिसमें निवेश, वितरण, आय उत्पादन मूल्य, बाजार मूल्य इत्यादि का निर्धारण मुक्त बाजार में प्रतिस्पर्धा द्वारा निर्धारित होता है।
पूँजीवाद एक आर्थिक पद्धति है जिसमें पूँजी के निजी स्वामित्व, उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत नियंत्रण, स्वतंत्र औद्योगिक प्रतियोगिता और उपभोक्ता
द्रव्यों के अनियंत्रित वितरण की व्यवस्था होती है। पूँजीवाद की कभी कोई निश्चित
परिभाषा स्थिर नहीं हुई;
देश, काल और नैतिक मूल्यों के अनुसार इसके
भिन्न-भिन्न रूप बनते रहे हैं।
साम्यवाद
साम्यवाद, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित तथा साम्यवादी घोषणापत्र में वर्णित समाजवाद की चरम परिणति है। साम्यवाद, सामाजिक-राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत एक ऐसी विचारधारा के रूप में वर्णित है, जिसमें संरचनात्मक स्तर
पर एक समतामूलक वर्गविहीन समाज की स्थापना की जाएगी।
ऐतिहासिक और आर्थिक वर्चस्व के प्रतिमान ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर समूचे
समाज का स्वामित्व होगा। अधिकार और कर्तव्य में आत्मार्पित सामुदायिक सामंजस्य स्थापित होगा। स्वतंत्रता और समानता के सामाजिक राजनीतिक
आदर्श एक दूसरे के पूरक सिद्ध होंगे। न्याय से कोई वंचित नहीं होगा और मानवता एक मात्र जाति होगी। श्रम की संस्कृति सर्वश्रेष्ठ और तकनीक का स्तर सर्वोच्च होगा। साम्यवाद
सिद्धांततः अराजकता का पोषक हैं जहाँ राज्य की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मूलतः
यह विचार समाजवाद की उन्नत अवस्था को अभिव्यक्त करता है। जहाँ समाजवाद में कर्तव्य
और अधिकार के वितरण को 'हरेक से अपनी क्षमतानुसार, हरेक को कार्यानुसार' (From each according to her/his ability, to each according
to her/his work) के सूत्र से नियमित किया जाता है, वहीं साम्यवाद में 'हरेक से क्षमतानुसार, हरेक को आवश्यकतानुसार' (From each according to her/his ability, to each according
to her/his need) सिद्धांत का लागू किया जाता है। साम्यवाद निजी संपत्ति का पूर्ण प्रतिषेध
करता है।
तानाशाही
वर्तमान समय में तानाशाही या अधिनायकवाद (डिक्टेटरशिप) उस शासन-प्रणाली को कहते हैं
जिसमें कोई व्यक्ति (प्रायः सेनाधिकारी) विद्यमान नियमों की अनदेखी करते हुए डंडे
के बल से शासन करता है।
एकाधिनायकत्व,
अधिनायकवाद या
डिक्टेटरशिप उस एक व्यक्ति की सरकार है जिसने शासन उत्तराधिकार के फलस्वरूप नहीं
वरन् बलपूर्वक प्राप्त किया हो तथा जिसे पूर्ण संप्रभुत्ता प्राप्त हो-अर्थात्
संपूर्ण राजनीतिक शक्ति न केवल उसी के संकल्प से उद्भूत हो वरन् कार्यक्षेत्र और
समय की दृष्टि से असीमित तथा किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं-और वह उसका
प्रयोग बहुधा अनियंत्रित ढंग से विधान के बदले आज्ञप्तियों द्वारा करता हो।
अराजकतावाद
अराजकतावाद (अंग्रेज़ी: Anarchism) एक राजनीतिक दर्शन है, जो स्वैच्छिक संस्थानों पर आधारित स्वाभिशासित समाजों की वक़ालत करता है। इनका वर्णन अक्सर राज्यहीन समाजों के रूप में होता है यद्यपि कई लेखकों ने इन्हें अधिक विशिष्टतापूर्वक अपदानुक्रमिक मुक्त संघों पर आधारित संस्थानों के
रूप में परिभाषित किया हैं।अराजकतावाद के मतानुसार राज्य अवांछनीय, अनावश्यक और हानिकारक है
यह राजनीति विज्ञान की वह विचारधारा है जिसमें राज्य की उपस्थिति को अनावश्यक माना जाता है। इस
सिद्धांत के अनुसार किसी भी तरह की सरकार अवांछनीय है। इसमें साधारणतः यह तर्क
दिया जाता है कि मनुष्य मूलतः विवेकशील, निष्कपट और न्यायपरायण
प्राणी है। अतः यदि समाज सही ढंग से संगठित हो तो किसी प्रकार के बल प्रयोग की
आवश्यकता ही नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में राज्य की उपस्थिति स्वतः अप्रासंगिक हो
जायगी।
सम्प्रदायवाद
सम्प्रदायवाद
का अर्थ ‘‘दूसरे
समुदाय के लोगो के प्रति धार्मिक भाषा अथवा सांस्कृतिक आधार पर असहिष्णुता की
भावना रखना तथा धार्मिक सांस्कृतिक भिन्नता के आधार पर अपने समुदाय के लिए
राजनीतिक अधिकार, अधिक
सत्ता, प्रतिष्ठा
की मांगे रखना और अपने हितो को राष्ट्रीय हितो से ऊपर रखना है।
सम्प्रदायवाद की प्रमुख विशेषताएं -
सम्प्रदायवाद की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है।
1.
यह अंधविश्वास पर आधारित है।
2.
यह असहिष्णुता पर आधारित है।
3.
यह दूसरे धर्मो के प्रति दुष्प्रचार करता है।
4.
यह दूसरो के विरूद्ध हिंसा सहित अतिवादी तरीको को स्वीकार
करता है।
सम्प्रदायिकता की समस्या के मुख्य
कारण -
1.
धर्म की संकीर्ण व्याख्या- धर्म की संकीर्ण व्याख्या लोगो
को धर्म के मूल स्वरूप से अलग कर देती है धर्म की संकीर्ण व्याख्या साम्प्रदायिकता
का कारण है-
2.
सामाजिक मान्यताएं- विभिन्न सम्प्रदायवादी धर्मिक
मान्यताएं एक दूसरे से भिन्न है जो परस्पर दूरी का कारण बनती है। छूआछूत व ऊंचनीच
की भावना सम्प्रदायवाद को फैलाती है।
3.
राजनीतिक दलो द्वारा प्रोत्साहन- भारत के विविध राजनीतिक दल
चुनाव के समय वोटो की राजनीति से साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन देते है।
4.
साम्प्रदायिक संगठन- कुछ सामप्रदायिक संगठन अपनी
संकीर्ण राजनीति से लोगो के बीच साम्प्रदायिकता की भावना को भड़काकर अपने आपको
सच्चा राष्ट्रवादी कहते है।
5.
मुस्लिम समाज का आार्थिक एवं शैक्षाणिक दृष्टि से पिछड़ा़पन- ब्रिटिश शासनकाल से ही मुसलमान
आर्थिक दृष्टि से पिछडे़ हुए रहे है। तथा शैक्षणिक दृष्टि से भी पिछडे रह जाने के
कारण सरकारी नौकरियों व्यापार उद्योग में उसकी स्थिति सुधर नही पार्इ है। इससे
उनमें असंतोष पनपने लगा।
6.
प्रशासनिक अक्षामता- सरकार और प्रशासन की उदासीनता
के कारण भी कभी कभी साम्पद्रायिक दंगे हो जाते है।
सम्प्रदायवाद का लोकतंत्र पर प्रभाव-
देश में सम्प्रदायिकता के निम्न दुष्परिणाम देखने को मिलते है-
1.
राष्ट्रीय एकता बाधित- राष्ट्रीय एकता का अर्थ कि देश
के सभी लोग एक होकर रहे जबकि साम्प्रदायिकता देश की जनता को समूहो तथा
साम्प्रदायिकता में बांट देती है।
2.
राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा प्रभावित- साम्प्रदायिक तत्वो द्वारा
फैलार्इ जाने वाली अफवाहों व गडब़ ड़ी से देश की शांति भंग हो जाती है।
3.
वैनस्यता को बढ़़ावा- साम्प्रदायिकता से विभिन्न
वर्गो में द्वेश को बढ़ावा मिलता है।
4.
विकास में बाधक- साम्प्रदायिक दुर्भावना के कारण
समाज में पारस्परिक सहयोग की भावना समाप्त हो जाती है। देश के विभिन्न स्थानो पर
साम्प्रदायिक दंगे होने से वहां का जनजीवन अस्त व्यस्त हो जाता है और समस्त विकास
कार्य ठप्प हो जाते है।
5.
भ्रष्टाचार में वृद्धि- उच्चाधिकारी और राजनेता
साम्प्रदायिक आधार पर अनुचित एवं अवैधानिक कार्यवाहीयो में संलग्न व्यक्ति का ही
पक्ष लेते है। इतना ही नही नौकरियां एवं अन्य प्रकार की सुविधा देने में भी
साम्प्रदायिक आधार पर विचार करते है। इससे उनका नैतिक पतन होता है और भ्रष्टाचार
में वृद्धि होती है।
रूढ़िवाद
रूढ़िवाद सामाजिक विज्ञान के
अंतर्गत व्यवहृत एक ऐसी विचारधारा है जो पारंपरिक मान्यताओं
का अनुकरण तार्किकता या वैज्ञानिकता के स्थान पर केवल आस्था तथा प्रागनुभवों के आधार पर करती है। यह सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक
मान्यताओं का समुच्चय है जो चिरकाल से प्रचलित मान्यताओं और व्यवस्था के प्रति
सम्मान को बढ़ावा देती है। यह विचारधारा नए और बिना आज़माए हुए विचारों और
संस्थाओं को अपनाने के बजाय पुराने और आज़माए हुए विचारों और संस्थाओं को क़ायम
रखने का समर्थन करती है। डेविड ह्यूम और एडमंड बर्क रूढ़िवाद के प्रमुख उन्नायक माने जाते हैं। समकालीन
विचारकों में माइकेल ओकशॉट को रूढ़िवाद का प्रमुख
सिद्धांतकार माना जाता है।
धर्मो के विचारधारा से कई उच्च प्रकृति नियम है जो सभी को
प्रत्यक्ष है । जैसे सभी वनस्पति सूक्ष्मजीवों जीव जन्तु व मनुष्य जन्म लेकर
जीवनयापन कर मृत्यु को प्राप्त करते है सभी भूख प्यास से बंधे है और सभी बचपन यौवन
वृध्दावस्था को प्राप्त करते है इसी प्रकार प्रकृति नियम दिन रात ग्रह नक्षत्र
सूर्य चन्द्र की स्थिति को निर्धारित करती है मौसम ऋतु प्रकृति के नियमों का ही
पालन करती है इसी प्रकार सभी स्त्री व पुरुष एक दुसरे के प्रति आकर्षित होते है
परन्तु धर्मो के इच्छा शक्ति के कारण कोई सभी जन्मों में एक ही से प्रेम प्रसंग से
बंधा रहता है और कुछ दो तीन दस पांच सैकड़ों से जुड़े रहते है।
प्रकृति नियम स्वतः ही गति करती है परन्तु मानव समाज
प्रकृति पर ध्यान ना देकर अपने राष्ट्र क्षेत्र के शासन प्रणाली धर्म संस्कृति
परिवार के मान्यता के अनुसार रहन सहन खानपान पहनावा पूजा विधि विवाह विधि आदि
संस्कार करता है कहा जाऐ तो हर एक मनुष्य अपने रहने के स्थान के मानव समाज के
मान्यता के अनुसार जीवनयापन करने के लिए बाध्य है ।
मानव समाज के विचारधारा तीन प्रकार की है ____ रुढ़िवादी जो लोग अपने
धर्म संस्कृति के मान्यता के अनुसार ही रहन सहन खानपान पहनावा पूजा विधि विवाह
विधि आदि संस्कार करते है वे है । प्रायः विश्व के कट्टर धर्मवादी लोग व आदिवासी
जो प्राचीन मूल सभ्यता में है ।
आधुनिक परिवेश जो लोग वर्तमान जन- जीवन के अनुसार रहन सहन
खानपान पहनावा पूजा विधि विवाह विधि आदि संस्कार करते है । प्रायः विश्व के
अधिकांश शहरी मनुष्य है ।
रूढ़िवादी और आधुनिक परिवेश जो मनुष्य रहन सहन खानपान
पहनावा अपने धर्म संस्कृति व वर्तमान के समाज के अनुसार रहते है परन्तु विवाह विधि
अपने संस्कृति के अनुसार करते है परन्तु अत्याधिक सम्पत्ति व प्रसिध्द पद को देखकर
धर्म संस्कृति को भूल जाते है फिर मात्र भगवान एक है धर्म जाति तो लोगो ने बनाया
है ।
धर्म व संस्कृति की मान्यता से उच्च कुछ भी नहीं परन्तु
प्रकृति के नियम से कोई नहीं बचता है और मानव समाज के विचारधारा के अनुसार ही
मनुष्य व्यवहार स्वभाव सोच विचार रखकर ही खुश रह सकता अन्यथा दुखी हो जाता है कहा
जाऐ तो जिस प्रकार के समाज में मनुष्य रहता है उस परिवेश में रहना ही सुखी रहने का
सीधा सरल उपाय है ।
संविधानवाद
संविधानवाद (Constitutionalism)
का सामान्य अर्थ यह विचार है कि सरकार की सत्ता संविधान से उत्पन्न होती है तथा इसी से उसकी सीमा भी तय होती है।
संविधानवाद सरकार के उस स्वरूप को
कहते हैं जिसमें संविधान की प्रमुख भूमिका होती
है। अधिकारियों को मनमाने निर्णय की छूट होने के स्थान पर 'कानून के राज्य' का पक्ष लेना ही
संविधानवाद है। संविधानवाद की मूल भावना यह है कि सरकारी अधिकारी कुछ भी, और किसी भी तरीके से, करने के लिये स्वतंत्र
नहीं हैं बल्कि उन्हें अपनी शक्ति की सीमाओं के अन्दर रहते हुए ही कार्य करने की
आजादी (या बन्धन) है और वह भी संविधान में वर्णित प्रक्रिया (procedures)
के अनुसार।
ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप ही संविधानिक राज्यों
का जन्म हुआ। मनुष्य द्वारा राजसत्ता के अत्याचार व दुरूपयोग के बचने के प्रयास के
परिणाम स्वरूप संविधानवाद का जन्म हुआ। आधुनिक संविधानवाद के विस्तृत आधार हैं, किन्तु इसका मूल आधार ‘‘विधि का शासन’’ ही माना जाता है। प्राचीन काल से ही ऐसे विविध विचारो पर
चिन्तन किया जाता रहा हैं जो राजसत्ता को प्रभावी ढ़ंग से नियंत्रित कर सके एवं
उसके सद्-प्रयोग में सहायक बन सके। इस दृष्टिकोण से प्राचीनकाल से ही राजसत्ता एवं
नैतिक अभिबन्धनों एवं धार्मिक मान्यताओं के साथ ही शाश्वत विधि, प्राकृतिक विधि, दैवीय विधि एवं मानवीय विधि के रूप में विभिन्न
उपायों पर विचार करने की लम्बी परम्परा दीख पड़ती हैं।
अतिवाद
अतिवाद या चरमवाद का शाब्दिक अर्थ है अति
तक (किसी चीज को) ले जाना। इस शब्द का प्रयोग धार्मिक और राजनीतिक विषय में ऐसी विचारधारा के लिये होता है जो मुख्यधारा समाज के नजरिए में
स्वीकार्य नहीं है। चरमवाद या चरमपन्थ या उग्रवाद (extremism) का अक्षरशः अर्थ हैं "(किसी को) परिसीमा तक, चरम तक ले जाना" या
"चरम होने की गुणवत्ता या अवस्था, चरम उपायों या विचारों की
वक़ालत करना"। आजकल, इस शब्द का ज़्यादातर
प्रयोग राजनीतिक या धार्मिक अर्थ में उस विचारधारा के लिये होता हैं, जो (वक्ता या किसी
अन्तर्निहित साझी सामाजिक सहमति द्वारा) समाज की स्वीकार्य मुख्य धारा की अभिवृत्तियों से काफ़ी
दूर मानी जाती हैं।
नारीवाद
नारीवाद, राजनैतिक आन्दोलनों, विचारधाराओं और सामाजिक आंदोलनों की एक श्रेणी है, जो राजनीतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत और सामाजिक लैंगिक समानताको परिभाषित करने, स्थापित करने और प्राप्त करने के एक लक्ष्य को साझा करते
हैं। इसमें महिलाओं के लिए पुरुषों के समान शैक्षिक और पेशेवर अवसर स्थापित करना
शामिल है।
नारीवादी सिद्धांतो का उद्देश्य लैंगिक असमानता की प्रकृति
एवं कारणों को समझना तथा इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले लैंगिक भेदभाव की राजनीति
और शक्ति संतुलन के सिद्धांतो पर इसके असर की व्याख्या करना है। स्त्री विमर्श
संबंधी राजनैतिक प्रचारों का जोर प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा, मातृत्व अवकाश, समान वेतन संबंधी अधिकार, यौन उत्पीड़न, भेदभाव एवं यौन हिंसापर रहता है।
स्त्रीवादी विमर्श संबंधी आदर्श का मूल कथ्य यही रहता है कि कानूनी अधिकारों का आधार लिंग न बने।
आधुनिक स्त्रीवादी विमर्श की मुख्य आलोचना हमेशा से यही रही
है कि इसके सिद्धांत एवं दर्शन मुख्य रूप से पश्चिमी मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित
रहे हैं। हालाकि जमीनी स्तर पर स्त्रीवादी विमर्श हर देश एवं भौगोलिक सीमाओं मे
अपने स्त्र पर सक्रिय रहती हैं और हर क्षेत्र के स्त्रीवादी विमर्श की अपनी खास
समस्याएँ होती हैं।
कट्टरवाद
कट्टरवाद या मूलभूतवाद (fundamentalism) का आम तौर पर एक धार्मिक लक्ष्यार्थ होता
है जो किसी अलघुकरणीय मान्यताओं के समुच्चय के लिए दृढ़ आसक्ति को इंगित करता है।
संदर्भ के आधार पर,
कट्टरवाद एक
तटस्थ निरूपण (characterization) के बजाए एक ह्रासकारी हो सकता है, उसी प्रकार जैसे राजनीतिक दृष्टिकोणों को "दक्षिणपंथी" या "वामपंथी" बुलाना, कुछ के लिए नकारात्मक लक्ष्यार्थ हो सकता हैं।
व्यक्तिवाद
व्यक्तिवाद एक नैतिक (एथिकल), राजनैतिक एवं सामाजिक
दर्शन (outlook) है जो व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता पर बल देता है और उसका समर्थन
करता है। साधारण अर्थ में, स्वार्थ के समर्थन की, अथवा विशिष्ट समझे
जानेवाले व्यक्तियों की महत्ता स्वीकार करने की प्रवृत्ति। दर्शन में, प्रत्येक व्यक्ति को
विशिष्ट व्यक्ति ठहराने की प्रवृत्ति।
बुद्धिवाद
बुद्धिवाद या 'प्रज्ञावाद'
(Intellectualism) बुद्धि के उपयोग एवं विकास को
इंगित करता है। बुद्धिजीवी होने तथा बुद्धि से सम्बंधित कार्यों को विशेष महत्व
देने की क्रिया बुद्धिवाद कहलाती है। इसके अलावा, दर्शन के क्षेत्र में 'बुद्धिवाद' कभी-कभी 'तर्कवाद'
(rationalism) के पर्यायवाची जैसा व्यवहृत होता है।
उदारतावाद
उदारवाद (Liberalism) वह विचारधारा है जिसके
अंतर्गत मनुष्य को विवेकशील प्राणी मानते हुए सामाजिक संस्थाओं को मनुष्यों की
सूझबूझ और सामूहिक प्रयास का परिणाम समझा जाता है। गौतम बुद्ध को उदारवाद के जनक माना जाता है। आरंभिक
उन्नायकों में एडम स्मिथ और जेरमी बेंथम के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
उदारतावाद व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थन का राजनैतिक दर्शन है। वर्तमान विश्व में यह अत्यन्त
प्रतिष्ठित धारणा है। पूरे इतिहास में अनेकों दार्शनिकों ने इसे बहुत महत्व एवं
मान दिया।
इतिहास
लास्की के अनुसार उदारवाद की व्याख्या करना अथवा उसकी कोई साधारण सी
परिभाषा दे देना सरल कार्य नही है,क्योंकि
"उदारवाद कुछ सिधान्तो का समूह्मात्र नही है;वह 'मानव के सोचने की प्रवृति' का भी परिचायक है|उदारतावाद शब्द का प्रयोग, साधारणतया, व्यापक रूप
से मान्य, कुछ राजनीतिक तथा आर्थिक सिद्धांतों, साथ ही, राजनीतिक
कार्यों बौद्धिक आंदोलनों का भी परिणाम है जो 16वीं शताब्दी से ही सामाजिक जीवन के
संगठन में व्यक्ति के अधिकारों के पक्ष में, उसके
स्वतंत्र आचरण पर प्रतिबंधों के विरुद्ध, कार्यशील
रहे हैं। 1689 में लाक ने लिखा, "किसी को भी अन्य के स्वास्थ्य, स्वतंत्रता या संपत्ति को हानि नहीं
पहुँचानी चाहिए।" अमरीकी स्वतंत्रता के घोषणापत्र (1776) ने और भी प्रेरक शब्दों में
"जीवन, स्वतंत्रता तथा सुखप्राप्ति के
प्रयत्न" के प्रति मानव के अधिकारों का ऐलान किया है। इस सिद्धांत को फ्रांस के
"मानव अधिकारों के घोषणापत्र" (1971) ने यह घोषित कर और भी संपुष्ट किया
कि अपने अधिकारों के संबंध में मनुष्य स्वतंत्र तथा समान पैदा होता है, समान अधिकार रखता है। उदारतावाद ने इन विचारों
को ग्रहण किया, परंतु व्यवहार में बहुधा यह अस्पष्ट तथा
आत्मविरोधी हो गया, क्योंकि उदारतावाद स्वयं अस्पष्ट पद होने
से अस्पष्ट विचारों का द्योतक है। 19वीं शताब्दी में उदारतावाद का अभूतपूर्व
उत्कर्ष हुआ। जो भी हो, राष्ट्रीयवाद के सहयोग से इसने इतिहास का
पुननिर्माण किया। यद्यपि यह अस्पष्ट था तथा इसका व्यावहारिक रूप स्थान-स्थान पर
बदलता रह, इसका अर्थ, साधारणतया, प्रगतिशील ही रहा। नवें पोप पियस ने जब
1846 ई. में अपने को "उदार" घोषित किया तो उसका वैसा ही असर हुआ जैसा आज
किसी पोप द्वारा अपने को कम्युनिस्ट घोषित करने का हो सकता है।
19वीं शताब्दी के तीन प्रमुख आंदोलन राष्ट्रीय
स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा
वर्ग-स्वतंत्रता के लिए हुए। राष्ट्रीयवादी, जो मंच पर
पहले आए, विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे।
उदारतावादी अपनी ही राष्ट्रीय सरकारों के हस्तक्षेप से मुक्ति चाहते थे। समाजवादी कुछ देर बाद
सक्रिय हुए। वे इस बात का आश्वासन चाहते थे कि शासन का संचालन संपत्तिशाली वर्ग के
हितसाधान के लिए न हो। उदारतावादी आंदोलन के यही तीन प्रमुख सूत्र थे जिन्हें
बहुधा भावनाओं एवं नीतियों की आकर्षक उलझनों में तोड़ मरोड़कर बट लिया जाता था। ये
सभी सूत्र, प्रमुखत: महान फ्रांसीसी राज्यक्रांति
(1789-94) की भावनाओं और रूसों जैसे महापुरुषों के विचारों की गलत सही व्याख्याओं
से अनुप्राणित थे।
इस प्रकार, उदारतावाद, भिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न अर्थ
रखता था। किंतु सर्वत्र एक धारणा समान थी, कि
सामंतवादी व्यवस्था के अनिवार्य रूप समाज के अभिजात नेतृत्व संबंधी विचार उखाड़
फेंके जाएँ। नव अभिजात वर्ग-मध्य वर्ग-विकासशील औद्योगिक केंद्रों के मजदूर वर्ग
के सहयोग से इस क्रांति को संपन्न करे। (मध्य वर्ग धनोपार्जन के निमित्त राजनीतिक
तथा आर्थिक स्वतंत्रता चाहता था। इसी बीच औद्योगिक क्रांति की प्रगति ने ऐसे
धनोपार्जन के लिए अभूतपूर्व अवसर प्रस्तुत कर दिए।) बाद में इसके सहयोगी मजदूर वर्ग, जो सामाजिक स्वतंत्रता तथा उत्पादित धन
पर समाज का सामूहिक स्वत्व चाहते थे, अलग हो
जाएँ। किंतु अभी उन्हें एक साथ रहना था। नि:संदेह उनके मूल विचार, कुछ अंश तक, एक दूसरे से प्रभावित थे, परस्पर निबद्ध।
19वीं शताब्दी के समूचे पूर्वार्ध में यूरोप के उन्नत
देशों के व्यापारी आर्थिक उदातरतावाद में विश्वास रखते थे जिसके अनुसार व्यापार में
अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा ही सर्वोत्तम एवं सबसे अधिक न्याययुक्त पद्धति मानी जाती
थी। इसके सिद्धांतों का प्रतिपादन पहले ऐडम स्मिथ (1723-90) ने अपनी "राष्ट्रों का
धन" (द वेल्थ ऑव नेशंस) नामक पुस्तक में, फिर फ्रांस
में फिज़ियोक्रैटों एवं उनके अनुयायियों ने किया। व्यक्तिगत व्यापारियों तथा
व्यक्तिगत राज्यों की इस अनियंत्रित प्रतिस्पर्धा का परिणाम, कुछ समय के लिए, अत्यधिक लाभकर ही हुआ, यद्यपि यह लाभ अविकसित विदेशों के
स्वार्थ तथा स्वदेश कृषि को हानि पहुँचाकर हुआ।
19वीं शताब्दी के मध्य में इग्लैंड के
उदारतावादी, पुराने "ह्विग" दल के
उत्तराधिकारी होते हुए भी, नागरिक तथा धर्मिक स्वतंत्रता के
परंपरागत उपासक आभिजात्यों से पूर्णतया भिन्न थे। इंग्लैंड में तो पहले
"उदार" शब्द से कुछ विदेशी आभास भी पाया जाता था, क्योंकि इसका स्पष्ट संबंध फ्रांस तथा
स्पेन के क्रांतिकारी आंदोलनों से था। किंतु 1830 के पश्चात् लार्ड जान रसेल के समय से, इस शताब्दी के उत्तरार्ध में ग्लैड्स्टन
के समय तक, यह शब्द इंग्लैंड में भी चालू हो गया तथा
सम्मानित माना जाने लगा। जान स्टुअर्ट मिल की प्रसिद्ध पुस्तिका
"स्वतंत्रता" द्वारा इसे सैद्धांतिक मर्यादा भी मिली। इससे इस विचार ने
प्रश्रय पाया कि मानव व्यक्तित्व मूल्यवान् है और कि, अच्छी अथवा बुरी, सभी प्रकार के राज्य नियंत्रण से मुक्त
व्यक्तिगत शक्ति का स्वतंत्र आचरण ही प्रगति का मूल कारण है।
राजनीतिक क्षेत्र में इसकी उपलब्धि वैधानिकता
तथा संसदीय लोकसत्ता की दिशा में हुई और आर्थिक क्षेत्र में स्वतंत्र व्यापार (लेसे फ़ेयर) ने नकारात्मक कार्यक्रम में, जिसकी मान्यता यह थी कि कार्य प्रारंभ
करने का अधिकार राज्यनियंत्रण से निर्बंध व्यक्ति को ही प्राप्त है। किंतु सामाजिक
आवश्यकताओं ने परिवर्तन अनिवार्य कर दिया। जे. एस. मिल ने उदारतावादी विचारधारा को
और भी व्यापाक बनाया, जिसके अंतर्गत अब राज्य लोकहित में
नियंत्रण लगाने के अधिकार से वंचित नहीं रहा। प्राचीन कट्टर व्यक्तिवादी विचारधारा
को अधिकांश तिरस्कृत कर दिया गया। एल. टी. हाबहाउस तथा जे. ए. हाबसन की रचनाओं में
समाजवादी प्रभाव, विशेषकर फेबियनों का, स्पष्ट लक्षित होने लगा, जो स्वयं उदार विचारधारा के ऊपर टी.एच.
ग्रीन जैसे पूर्ववर्ती लेखकों के प्रभाव का परिचायक था। और अब व्यक्तिवाद एवं
समाजवाद के बीच एक असंतुलन स्थापित हो गया है।
उदारतावाद की दो विचारधाराओं के बीच फँस जाने
के कारण इधर भविष्य का उसका मार्ग कुछ स्पष्ट नहीं है। समय-समय पर इसने अपनी
सजीवता का परिचय दिया है। जैसे, ब्रिटेन, में 1906-11 के बीच, जब रूढ़ उदारतावाद के विरोध के बावजूद
सामाजिक बीमा से संबंधित कानून बना डाला गया, अथवा, द्वितीय महायुद्ध के बाद भी, जब विलियम बेवरिज ने एक लोकहितकारी राज्य
की रूपरेखा तैयार कर डाली। किंतु जनशक्ति को प्रभावित करने में उदारतावाद नि:शक्त
है, इस दिशा में इसी असफलता अनेक बाद
प्रमाणित हो चुकी है। जर्मनी में नात्सीवाद के सामने
इसकी भयंकर असफलता सिद्ध हो चुकी है। वस्तुत: पुन: संगठन के लिए जनता में उत्साह
उत्पन्न कर उसे संगठित कर सकने में इसकी भयंकर अयोग्यता प्रमाणित हुई है। सामाजिक
प्रगति के साथ उदारतावाद डग नहीं भर सका। फिर भी इसके मूल सिद्धांत अनुसंधान तथा
विचार की स्वतंत्रता, भाषण एवं विचारविनिमय की स्वतंत्रता अभी भी
अपेक्षित हैं, क्योंकि इनके बिना तर्कसम्मत विचार तथा
कार्य संभव नहीं हो सकते।
समाजवाद
समाजवाद (Socialism)
एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था
में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं।
आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक प्रत्यय के तौर पर समाजवाद निजी
सम्पत्ति पर आधारित अधिकारों का विरोध करता है। उसकी एक बुनियादी प्रतिज्ञा यह भी
है कि सम्पदा का उत्पादन और वितरण समाज या राज्य के हाथों में होना चाहिए। राजनीति
के आधुनिक अर्थों में समाजवाद को पूँजीवाद या मुक्त बाजार के सिद्धांत के विपरीत
देखा जाता है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में समाजवाद युरोप में अठारहवीं और
उन्नीसवीं सदी में उभरे उद्योगीकरण की अन्योन्यक्रिया में विकसित हुआ है।
ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी हैरॉल्ड लॉस्की ने कभी समाजवाद को एक ऐसी टोपी कहा था जिसे कोई भी अपने
अनुसार पहन लेता है। समाजवाद की विभिन्न किस्में लॉस्की के इस चित्रण को काफी सीमा
तक रूपायित करती है। समाजवाद की एक किस्म विघटित हो चुके सोवियत संघ के
सर्वसत्तावादी नियंत्रण में चरितार्थ होती है जिसमें मानवीय जीवन के हर सम्भव पहलू
को राज्य के नियंत्रण में लाने का आग्रह किया गया था। उसकी दूसरी किस्म राज्य को अर्थव्यवस्था के नियमन द्वारा कल्याणकारी भूमिका निभाने का मंत्र देती
है। भारत में समाजवाद की एक अलग
किस्म के सूत्रीकरण की कोशिश की गयी है। राममनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव के राजनीतिक चिंतन और व्यवहार से निकलने वाले प्रत्यय को 'गाँधीवादी समाजवाद' की संज्ञा दी जाती है।
समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द 'सोशलिज्म' का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का
प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन
विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को
बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना
चाहते थे।
समाजवाद शब्द का प्रयोग अनेक और कभी कभी परस्पर विरोधी
प्रसंगों में किया जाता है; जैसे समूहवाद अराजकतावाद, आदिकालीन कबायली साम्यवाद, सैन्य साम्यवाद, ईसाई समाजवाद, सहकारितावाद, आदि - यहाँ तक कि नात्सी
दल का भी पूरा नाम 'राष्ट्रीय समाजवादी दल' था।
समाजवाद की परिभाषा करना कठिन है। यह सिद्धांत तथा आंदोलन, दोनों ही है और यह
विभिन्न ऐतिहासिक और स्थानीय परिस्थितियों में विभिन्न रूप धारण करता है। मूलत: यह
वह आंदोलन है जो उत्पादन के मुख्य साधनों के समाजीकरण पर आधारित वर्गविहीन समाज
स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील है और जो मजदूर वर्ग को इसका मुख्य आधार बनाता है, क्योंकि वह इस वर्ग को
शोषित वर्ग मानता है जिसका ऐतिहासिक कार्य वर्गव्यवस्था का अंत करना है।
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